घुघुती बासेंछी मेरा देश

ghughuti अब, सच्ची बात तो यह है कि हमारे गांव में हमीं जो क्या रहने वाले ठैरे, और भी बाशिंदे हुए वहां के। आप ‘गोरु-बाछ-बाकार’ सोच रहे होंगे। वे तो हुए ही। बल्कि वे ही क्यों, सिरु-बिरालू और ढंट कुकर भी तो हमारे घरों में ही रहने वाले हुए। मगर इनके अलावा भी मेरे गांव के सैकड़ों बाशिंदे गांव की जमीन, खेतों में खड़े पेड़-पौधों और गांव की सरहद से लगे डान-कानों और उनमें उगे जंगलों में रहते थे।

समझ ही गए होंगे आप? मैं अपने गांव की उन चिड़ियों की बात कर रहा हूं जिनसे हमारी गांव की दुनिया गुलजार रहती थी। दिनमान भर तो हुआ ही, रातों को भी उनमें से कई चिड़ियों की हलचल चलती रहती थी। वह चिड़ियों का चहचहाना, जंगली जानवरों का बासना (बोलना) और रंग-बिरंगे कीट-पतंगों का उड़ना-भनभनाना हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा था। उनकी आवाजों, उनकी उड़ानों और उनकी हरकतों से ऋतुओं और मौसमों तक का पता लग जाता था। गोंतली (अबाबील) हवा में मौज से स्वांई करके तेज उड़ने लगतीं तो बाज्यू बता देते, “द्यो (बारिश) होने वाला है। बौड़ै (बाज) जैसी चिड़ियां ऊंचे आसमान में थर-थर, थर-थर एक ही जगह टिक जाती तो कहते, बौड़ै थाक लग रही है, बरखा आएगी। वह आसमान में उड़ते हुए ‘टिटिट…टिटीट…टीट…टीट…’ की आवाज लगाती। लोग कहते थे, देखो बौड़ै आकाश से कह रही है ‘सरग दिदी पानि-पानि’ मतलब ‘आकाश दीदी पानी बरसाओ…पानी बरसाओ!’

भादों-असौज में शरद ऋतु शुरू होते ही गौरेयों जैसी छोटी काले-सफेद रंग की चिड़ियां आ जातीं तो गांव के लोग कहते, ‘देखो, ह्यों चड़ी आ गई हैं। हिमपात का मौसम आया ही समझो।’ हम बच्चे पूछते, ‘ये चड़ी कहां से आती हैं?’ ‘दूर हिमांचलों से’ वे कहते। जंगलों में जब कफुवा बासने लगता तो गर्मियों की शुरुआत हो जाती और बहू-बेटियों को मायके की याद सताने लगती थी।

गर्मियों में रात ब्याने (खुलने) का पता रत्तैब्यान (एकदम सुबह) बोलने वाली चिड़ियों से लगता। न जाने कहां से वह चिड़िया आ जाती और जोर से बासती ‘उठ्ठा हो! उठ्ठा हो!’ ठींग के धूरे में आंख खुलते ही कफुवा के बोल गूंजने लगते, ‘कुक्कू! कुक्कू! कुक्कू!’ वह तो थकता भी नहीं था। बीच-बीच में काफल-पाको चिड़िया एक सुर में बोलती, ‘काफल पाक्को! काफल पाक्को! काफल पाक्को!’ मैं कई बार गिनने की कोशिश करता। थक जाता, मगर वह नहीं थकती थी। गर्मियों की शुरुआत में तो जैसे सारा जंगल ही चिड़ियों के चहचहाने से गूंज उठता था।

घर-आंगन में भी चिड़िक्-चिड़िक्, चिड़िक्-चिड़िक् करती घिनौड़ियों (गौरेया) का झुंड चहल-पहल मचाए रखता। अगर आंगन में सुबह की धूप में नाज-पानी सुखाने के लिए फैला देते तो गौरेयों को उड़ाने के लिए बीच-बीच में ताली बजा कर जोर से चिल्लाते, “स हा!” गौरेयां पलक झपकते रफू-चक्कर हो जातीं, लेकिन अनाज के दानों का मोह थोड़ी ही देर में उन्हें फिर खींच लाता। फिर ताली बजती और फिर ‘सहा!’ की आवाज आती और फिर नटखट गौरेयां लौट आतीं।

घिनौड़ियों के बारे में ईजा एक कथा भी सुनाती थी। कहती थी, “अँ,क”

मैं “अँ” कह कर सुनने के लिए तैयार हो जाता। ghinodi

तब वह सुनाती, “किलै, एक सासु हुई बल। घर में नई ब्वारी (बहू) आई। उससे खूब काम कराने के लिए उसके आगे नाज का ढेर लगा देती। कहती, ले, छांट इसे। कंकड़, पत्थर, सूखे, सड़े दाने निकाल देना। ब्याल (सांझ) तक काम पूरा हो जाना चाहिए।”

“फिरि कि भै ईजा?”

“फिरि? नई ब्वारी नाज का उतना बढ़ा ढेर देख कर दाने छांटते-छांटते आंसू टपकाती। उसे बार-बार अपना मेंत (मायका) याद आता।”

“फिरि?”

“फिर, छोटी-छोटी घिनौड़ियों का झुंड आया। उनसे ब्वारी का दुःख नहीं देखा गया। उन्होंने अपनी बोली में चिड़िक-चिड़िक, चिड़िक-चिड़िक करके आपस में बात की और कहा, हमें इस दुखियारी ब्वारी की मदद करनी चाहिए।”

“उन्होंने कैसे मदद की?”

“क्यों, वे सब चटपट जुट गईं नाज का एक-एक दाना अलग करने में। घाम (धूप) वछाने (ढलने) से पहले ही सारा नाज साफ कर दिया। सासु ने देखा तो हपकपाल (हैरान) हो गई। सोचा, मेरी बहू तो बहुत काम करती है। मैं इसको बेकार ही दुःख दे रही हूं। उसने ब्वारी को प्यार से गले लगा तो ब्वारी ने भी प्यार से घिनौड़ियों की ओर देखा।”

“और, घिनौड़ियां?”

“घिनौड़ियां यह देख कर बहुत खुश हुईं। और, चिड़िक-चिड़िक करके चहचहाती हुईं उड़ गईं। इजु, अब वे रोज देखने आती हैं कि कहीं कोई सासु अपनी ब्वारी को उस तरह परेशान तो नहीं कर रही है।” फिर हँसते हुए कहने लगी, “…अच्छा सुन। जब तेरी ब्योली (दुल्हन) आ जाएगी तो मैं उसको इतना नाज छांटने को नहीं दूंगी।” मैं गौरेयों की कथा सुन कर वहां से भाग गया।”

आंगन के आगे खड़े खंभों पर तिरछे रखे पेड़ के लट्ठे या छत की मुंडेर पर आए-दिन दो-एक काले कौवे आ विराजते। छोटी-छोटी गोल आंखें चमकाते, गर्दन टेढ़ी करके आंगन में भोजन का मुआयना करते और करारी आवाज में ‘कांव-कांव’ करते। कौवे की आवाज सुनते ही घर वाले कहते, “आज जाने कौन पौन (मेहमान) आ रहे हैं।” या, “जाने क्या खबर मिलने वाली है?” लोग शंका करते- न जाने क्या खबर है, अच्छी या बुरी। कौवा ज्यादा कांव-कांव मचाता तो ‘कावा!कावा!’ कह कर हाथ के इशारे से उसे उड़ा देते। फिर लौट आता तो मानते कि कुछ खबर जरूर लाया है। ईजा सोचती शायद बेटी आ रही होगी, बाज्यू सोचते क्या पता कोई मेहमान आ रहा हो। कौवे को रोटी का टुकड़ा डाल देते।

आमतौर पर दो-एक कौवे ही दिखाई देते लेकिन पुश्योंण यानी घुघुतिया के त्यौहार पर न जाने कहां से उतने कौवे आ जाते थे। उस दिन हम बच्चे कौवों को घुघुत, बड़, लगड़, खीर, हलुवा और त्वाप (पुए) जैसे पकवान खिलाते थे और उनसे अपनी इच्छा की चीज मांगते थे। वैसे त्यों-त्योहारों को और शादी-व्याह, ब्रत आदि के मौके पर कुछ कौवे कहीं-न-कहीं से आ ही जाते थे। काकुनी (मक्का) की फसल पकने के मौसम में तो वे सैकड़ों की संख्या में आकर भुट्टों पर धावा बोल देते थे। तब हम खेतों में बने मचान पर खड़े होकर लकड़ी से खाली कनस्तर पीट-पीट कर हल्ला मचाते थे- ‘कावा! कावा!’ कौवों को भगा सकते थे, मगर उन्हें मारना पाप था।

वैसे सभी चिड़ियों को मारना पाप माना जाता था। घर वाले कहते थे, “जब वे हमारा कोई नुकसान नहीं करतीं तो हम क्यों उन्हें नुकसान पहुंचाएं? दो-चार गिरे-पड़े नाज के दाने ही तो चुग लेती हैं, बस।” कौवों की तरह सुवों यानी तोतों की दांग (झुंड) भी हमला बोलती थी मगर मारते उन्हें भी नहीं थे। भगा देते थे। इसके लिए दिनमान भर मचान पर ड्यूटी देते। वैसे कौवों और तोतों के झुंड सुबह और शाम को ही ज्यादा हमला बोलते थे। दिन में थोड़ी राहत रहती थी। तोते हरे-भरे दुदिल वगैरह के पेड़ों पर बैठ जाते तो हरी पत्तियों के बीच उनका पता ही नहीं लगता था। ताली की चटाक् या ख्योंतारे की फटाक से एक साथ ‘कियांक्-कियांक्’ करते हुए उड़ जाते।

 lambh-poochi गले में बिंदियों की माला जैसी पहने घघुतों (फाख्ता) की जोड़ियां तो सदा ही आंगन में दाना चुगने आतीं। किसी के पास आ जाने पर पंखों से फट-फट ताली-सी बजा कर पास के किसी पेड़ की शाखा या घर की मुंडेर पर बैठ जातीं और धीरे-धीरे कुरूरू…कुरूरू बोलने लगतीं। तभी तो उनके लिए घुर-घुघुती-घूर-घूर कहा जाता होगा। और, तभी उसकी दर्द भरी आवाज से दूर ब्याही बेटी को ईजा की याद आ जाने की बात कही गई होगी- ‘नि बास घुघुती, नि बास/ मेरि इजू सुनली, मेरा मैंती का देश…’। तभी, घुघुती को न मारने, न सताने की सीख दी जाती होगी कि किसी दुखियारी को दुख नहीं देना चाहिए। और, यह भी कि अगर उसे किसी ने सताया तो वह मंदिर में जाकर जार-जार रोएगी- कुरू रू, कु रू रू! ईजा से जब पूछता कि ईजा घुघुती क्या कहती रहती है तो वह कहती थी, “द ईजा, जानि कि दुःख भै वी कैं (बेटा जाने क्या दुःख है उसे)। मनुष्य योनि में जाने क्या-क्या सहा होगा बेचारी ने, कौन जाने? अब इस जनम में घुघुती बन कर अपना दुःख सुना रही होगी।”

और, सिटौलों (मैना) का तो एक तरह से दिन भर ही साथ रहता। वे हमारे साथ रहते या हमारी गाय-भैंसों के साथ। हमारे साथ तो केवल तब रहते जब कहीं खेत में बाज्यू या ददा हल चला रहे होते या आलू-पिनालू जैसी कोई फसल खोद रहे होते। तब सिटौले बड़े ध्यान से कीड़े-मकोड़े खोजने में जुट जाते। बीच-बीच में चुह-चुह, चुर्र-चुर्र, चुर्र-चुर्र की आवाज में बातें करते। मगर गाय-भैंसों के साथ उनका अटूट रिश्ता था। सिटौले दिन भर गाय-भैंसों, बछियों के शरीर पर से जुंए और किलनियां निकाल कर चुगते रहते। वे गाय-भैंसों की पीठ पर बैठ कर सवारी करते। उनके कान, नाक, मुंह में भी झांक कर कीड़े निकाल लेते। भैंसें तो आंखें बंद कर आराम से धूप ताप रही होतीं और सिटौले उनके मुंह पर बैठ कर जुंए ढूंढ रहे होते। तब न वे कान फटफटाती थीं, न पूंछ फटकार कर उन्हें भगाती थीं। सिटौले सफाई के काम में जुटे रहते। कभी-कभी कोई सिटौला गाय-भैंस के सींग पर बैठा-बैठा चहकता-चुर्र-चुर्र, रोडियो…रोडियो! मानों दूसरे सिटौलों से कह रहा हो-लो, मेरा काम तो निबट गया।

हम लोग खेलते-खेलते खेतों के भीड़ों पर बने बिलों में उनके घोंसलों के नजदीक पहुंचते तो सिटौले ‘श्यांक…श्यांक’ की आवाज करते। वे हमारे आसपास चक्कर लगा कर कुछ कहते। हमने एकाध बार घोंसले में से उनके अंडे निकाल कर देखे। हलके नीले रंग के सुंदर अंडे! ईजा को बताया तो उसने नाराज होकर कहा, “नैं पकड़न चाड़ांक आंड़ां कें। उनके अंडे पकड़ने पर उनमें मनख्य (मनुष्य) बास आ जाती है। चिड़िया उनको बाहर फेंक देती है। तस नैं करन, पराचित लागछ। आगे से मत निकालना सिटौलों के अंडे।”

मैंने उस दिन से कान पकड़ लिए। फिर कभी सिटौलों के घोंसलों से अंडे नहीं निकाले। जब भी उनके घोंसले के आसपास कोई फूटा हुआ अंडा देखता, तो बहुत दुःख होता। सोचता, किसी ने वह अंडा निकाल कर देखा होगा।

अंडों से बच्चे निकल आने पर वे एक साथ चिचियाते थे। तब आसपास ही बैठी सिटौल मां या पिता चोंच में कोई कीड़ा लेकर आता और बिल के भीतर सिर डाल कर बच्चों को दे देता। वह जाता तो दूसरा सिटौला आ जाता।

ब्याल (सांझ) होते ही दिन भर इधर-उधर भटकने वाले तमाम सिटौले रिंगोंनिया के पानी के पास कुय मतलब जंगली गुलाब की बड़ी-बड़ी झाड़ियों में जमा हो जाते और चहचहा कर चहल मचा देते। जाने क्या-क्या कहते थे वे सिटौले! मैं सोचता, क्या पता दिन भर की अपनी-अपनी बात सुनाते हों कि मैं तो वहां गया, मैंने ये किया, मैंने वो किया, मैंने बच्चों को इतनी बार कीड़े खिलाए…लेकिन, जितना चहल मचा रहता, उसमें कौन किसकी बात सुन पाता होगा? फिर सोचता, हो सकता है वे ब्याल की प्रार्थना करते हों या गीत गाते हों? कौन जाने।

दिन में कभी-कभी पेड़ों के आसपास खेतों में होट-ह चिड़िया की आवाज सुनाई दे जाती- ‘हौट…ह! हौट…ह!’ लोग कहते थे, एक किसान दिन भर खेतों में हल जोतता रहा बल, भूखा-प्यासा। खेत के दूसरे कोने पर बैलों को लौटाने के लिए जोर से बोलने को हुआ ‘हौट…ह!’ कि बेहोश होकर वहीं पलट गया। परान उड़ गए लेकिन चड़ी बन कर यहीं अपनी जिमी-जागा में लौट आए। अब वही चड़ी बोलती रहती है बल- ‘हौट…ह!’ ईजा, अपनी जिमी-जागा का इतना मोह होने ही वाला ठैरा फिर।

जिमी-जागा का भी और रसीले फलों का भी। तभी तो जेठ-आसाढ़ में ज्यों ही काफल पकने लगते, न जाने कहां से काफल-पाक्को चिड़िया चली आती और चिल्ला-चिल्ला कर काफल पकने की खबर देने लगती। एकदम सुबह से देर शाम तक बस बोलती ही रहती- ‘काफल…पाक्को! काफल पाक्को! काफल…पाक्को!’ एक बार बचपन में ईजा से पूछा था, “ईजा, काफल-पाक्को बोलते-बोलते थकती नहीं?”

ईजा बोली, “किलै नैं, ब्याल (शाम) होने पर जब अनरपट हो जाता है तो वह भी चुपचाप सो जाती है।”

लेकिन, एक दिन रात में उसकी आवाज सुनाई दे गई- ‘काफल पाक्को!’

मैंने ईजा को झकझोर कर जगाया, “ईजा उठ”। ईजा उठी तो मैंने कहा, “सुन धैं, काफल…पाक्को चड़ी बोल रही है। तू तो कहती है, वह शाम को सो जाती है? अब क्यों बोल रही है?”
“स्वैन (सपना) देख रही होगी पोथी…सपने में बोल रही होगी वह,” कह कर ईजा फिर सो गई।

जाड़ों का मौसम जब विदा हो जाता, कलियां फूटने लगतीं, फूल खिलने लगते तो जंगल में दिन भर ‘पीयू-पीयू’ की आवाज गूंजने लगती। यह चड़ी तो शायद रात में भी नहीं सोती थी। कई बार रात भर ‘पीयू-पीयू’ करती रहती। जब काफल-पाक्को चिड़िया ‘काफल-पाक्को!’ की रट लगाए रखती तो कफुवा चड़ी ‘कु क्कू…कु क्कू’ गाने लगती। कई बार तो लगता जैसे दोनों बारी-बारी से गा रही हैं- ‘काफल…पाक्को! कुक्कू! काफल…पाक्को! कुक्कू!’

जंगल की ओर से और भी कई आवाजें आती थीं। कभी एक सुर में न्या-हो चिड़िया की ‘न्या हो! न्या हो! न्या हो!’ आवाज आती। थकती वह भी नहीं थी। देर तक सुनते रहो तो उदासी होने लगती थी। लेकिन, खुशी की बात यह होती थी कि इसे वर्षा बुलाने वाली चिड़िया माना जाता था। ‘न्याहो!’ सुनते-सुनते एक दिन रिमझिम वर्षा हो जाती। चौमास शुरू हो जाता।   sitol-uttarakhand

काफल खाने जंगल जाते तो वहां चारों ओर चिड़ियों की चहचहाट सुनाई देती थी। कोई चिड़िया पास के ही किसी पेड़ की टहनी पर गा रही होती ‘ह्वी-टी-टी-टी-ह्वी’ तो कोई सीटी-सी बजा रही होती- ‘स्वीह्…स्वीह्!’ कहीं ‘कुर-कुर…कुर-कुर’, कहीं ‘चीं चीं चीं ई ई ई वीं ची ईं’ और कहीं ‘हो हो हो हो हो हो’। जंगल के भीतर कहीं से आवाज आती- ‘को को को को…को को को को!’ किसी ओर ‘पी ई ई पी ही…पी ई ई…पी ई…पि पी ही पी ई ई’ सुनाई देती तो कहीं कोई चड़ी ‘पीईप-पिईप-पीईप-पीईप’ कह रही होती। कोई गाती ‘कुर-कुर-कु ई ई ई!’ तभी, किसी पेड़ पर कोई कठफोड़वा हथौड़ी से भी तेजी से चोंच ठकठकाता- ‘ठक-ठक-ठक-ठक-ठक!’ बगल की शाख पर बैठी चड़ी कानों में अपने सुर का मधुर रस घोल देती-‘टी वी टी ई…टी टी वी!’

और, घर के आसपास आड़ू, खुबानी, निमुवा या फंया पर बैठी बुलबुलिया चड़ी (बुलबुल) अपनी मीठी तान छेड़ती- ‘पि…क्विह…क्विह!’ कभी करौल और लमपुछिय चिड़ियां आ जातीं। काले-सफेद-सलेटी लमपुछिय आसपास आते तो हम उन लंबी पूंछ वाली सुंदर चिड़ियों को देखते ही रह जाते। लेकिन, हमें हिलते-डुलते देखते ही पीली चोंच वाली वे लमपुछिया चिड़ियां ‘टि टि टि टी…टि टि का का!’ बोलते हुए तैरती हुई-सी नीचे पेड़ों की ओर उड़ जातीं। उन्हीं जैसे मगर छोटी पूंछ वाले करौल या बंशरियां भी आसपास आ जाते थे।
सुबह-शाम दूर खेतों में से तीतर की आवाज सुनाई देती- ‘तीन तोला तितरी!’ आवाज की ओर गौर से देखने पर काला-भूरा तीतर दिखाई देता। वह इतना तेज चलता कि पलक झपकते वहां से गायब हो जाता और फिर दूर खेत के दूसरे कोने पर खड़ा होकर आवाज देता ‘तीन तोला तितरी!’ शिकारी उसकी आवाज सुन कर निशाना साध लेते और देखते ही बंदूक चला कर उसे सदा के लिए खामोश कर देते। बाद-बाद के वर्षों में हमारे गांव में ‘तीन तोला तितरी!’ की आवाज कम सुनाई देने लगी थी।

आवाज तो चांखुड़ों की भी बहुत कम सुनाई देने लगी थी। बचपन में कई बार चुपचाप खेतों में बैठे रहने पर चांखुड़े अपने चूजों के साथ चुगते हुए दिखाई दे जाते थे। आगे-आगे माता-पिता और पीछे-पीछे चूजे। जरा-सा भी खटका होने पर चूजे यहां-वहां घास में ऐसे छिप जाते जैसे वहां वे थे ही नहीं। और, बड़े चांखुड़े एक साथ नहीं उड़ते थे। एक या दो भद-भद, भद-भद करके नीचे या उस पार के खेतों की ओर उड़ जाते। जहां वे पहले बैठे थे, वहां जाने पर अचानक कहीं से निकल कर दो-एक चांखुड़े ऐन मुंह पर से ही भद-भद करके फिर उड़ जाते। शायद बच्चों की हिफाजत के लिए कोई न कोई चांखुड़ा घास-पात या झाड़ियां में छिपा रहता था। खतरा टल जाने पर बाद में वह अपनी ‘चुकुर-चुकुर, चुकुर-चुकुर…किक्रिक्यां-किक्रिक्यां’ की आवाज में झुंड के बाकी साथियों को भी बुला लेता होगा।

हुमन या घुग्घू रात में बोलता था और इनका नाम लेकर घर के लोग बच्चों को डराते थे। कहते थे, “सो जा, सो जा, नहीं तो हुमन आ जाएगा। घुग्घू बोलने लगेगा।” मैं छोटा था तो हम आलू की फसल की देखभाल के लिए धूरे में गोठ बना कर रहते थे। हम भी, हमारे गोरु-बाछे भी। मैं बात-बेबात पर रोता रहता था। तब ईजा ने रात के अंधेरे में पहली बार कहा, “सुन तो जरा, हुमन बोल रहा है।” मैंने चुप होकर सुना तो कुछ ऐसी मोटी, भारी आवाज आ रही थी- ‘हू हू।’ उसे सुन कर मैं चुप हो गया। घूग्घू ‘घू घु’ करके बोलता था। लोग कहते थे, हुमन और घुग्घू उल्लू चड़ी होते हैं। वे रात में ही बोलते हैं और कई बार तो बड़ी डरावनी आवाज निकालते हैं।

गांव की झाड़ियों-जंगलों में जब भी जाते, जंगली मुर्गियां खज-बज मचातीं। कई बार जंगल में रास्ता काट कर निकल जातीं। लाल-काले पंखों वाली वे लंबी मुर्गियां बहुत सुंदर लगती थीं। उनके चटपटे शिकार और गरम शोरबे के चक्कर में उनका बुरी तरह शिकार किया गया। भरवां और कारतूसी बंदूक से भी और फंदों से भी। लछमियां दर्जी घोड़े की पूंछ के बालों से जो पांशा (फंदा) बनाता था, उससे भी कई जंगली मुर्गियों की जान गई।

स्याही रंग की कलचुड़िया गाड़-गधेरों के किनारे पत्थरों पर या नम जगहों की चट्टानों के आसपास दिखाई दे जातीं। जाड़ों के मौसम में अक्सर दिखाई देती थीं। कहावत थी कि कलचुड़िया और कफुवा की भेंट नहीं होती है। कफुवा गर्मियों में ऊपर धूरे के जंगल में बोलता था तो कलचुड़िया नीचे गाड़-गधेरों के किनारे ‘स्वी ई ई’ के सुर में गाती थी। जाड़ों में कफुवा के बोल नहीं सुनाई देते थे जबकि कलचुड़िया पहाड़ पर ऊपर तक चली आती थी। शायद इसीलिए यह कहावत चल पड़ी होगी। लोग कहते थे, कलचुड़िया का शोरबा दमे की दवा है। एक तो कलचुड़िया ही कम होती थीं, और दूसरे, अच्छा ही हुआ लोगों ने इस बात पर विश्वास नहीं किया। 

भूरी, मटमैली मुश्या चिड़ियां घर-आंगन के आसपास तक चली आतीं। घरों के नजदीक की झाड़ियों में भी भोजन खोजती रहतीं। मुश्या चड़ियां दो-चार  के झुंड में होतीं। जब दूसरी चिड़ियां चुगती रहतीं तो उनमें से एक संतरी बन कर ड्यूटी देती। देखती रहती कि आसपास कहीं कोई खतरा तो नहीं है। बीच-बीच में मधुर ‘स्वीट’ की आवाज में साथी चिड़ियों से कुछ कहती भी रहती थी। ईजा कहती थी, मुश्य चड़ि बहुत गरीब चिड़िया होती है। उसे कभी मारना या सताना मत।

 kututoyee-woodpecker मेरे गांव के जंगल में सूखे पात-पतेलों के ही रंग की छाप्क चड़ी भी होती थी। ठुल ददा कहते थे, जंगल में छाप्क जमीन से चिपकी रहती है। वैसा ही भूरा-मटमैला रंग होने के कारण बहुत पास तक पहुंच जाने पर भी वह दिखाई नहीं देती। बाद में जिम कार्बेट की किताब ‘कुमाऊं के क्रूर शेर’ पढ़ने पर पता लगा कि हमारे गांव के डाक बंगले से कुछ ही दूर जब उन्होंने चौगढ़ की नरभक्षी बाघिन को मारा था तो उनके हाथ में छाप्क चड़ी के अंडे थे। कहते हैं, कार्बेट शाब को चिड़ियों और उनके अंडों के बारे में जानने का बहुत शौक था।

अच्छा, सबसे ज्यादा आश्चर्य तो इस बात पर होता था कि जब भी गांव में कहीं कोई जानवर मर जाता तो रिशि (गिद्ध) आकाश में गोल चक्कर काटने लगते। फिर एक-एक कर भच्च करके पंजों के बल जमीन पर उतरते और मरे हुए जानवर को खाने में जुट जाते। ढ्यर यानी मरे हुए जानवर का मांस, नोचने के लिए उनमें धक्का-मुक्की भी होती थी। भीड़ में जो रिशि मरे हुए जानवर तक नहीं पहुंच पाता, वह छाते की तरह अपने बड़े-बड़े पंख फैला कर, खम्म-खम्म करके इधर-उधर चलता और कैं-कैं-कैं और ‘चैं ’ की कर्कश आवाज में गुस्सा दिखाता। एक बार तो दो-एक चील मरी हुई भैंस के खाली ढोल जैसी रह गई ठठरी के भीतर घुसे ठैरे। हमने उस पर पत्थर मारे तो वे फड़-फड़, फड़-फड़ करके गुस्से में बाहर निकले और पंख फैला कर इधर-उधर देखने लगे। हम डर गए। जोध्यदा के मारे हुए बाघ की खाल निकाल कर नीचे घुराए मतलब पलट कर फेंके हुए शरीर को रिशियों ने ही सफाचट कर दिया था। 

और हां, कभी-कभी उनमें एकाध लाल सिर वाला रिशि भी दिखाई दे जाता था। साथ के बच्चे कहते थे- वह रिशियों का पुरोहित है। हम उसे कान वाला रिशि कहते थे।
जब रिशि मरे हुए जानवर को नोचते और खाने में जुटे रहते तो कौवे और कुत्ते ललचाई नजरों से देखते रहते थे। कोई कुत्ता पास जाने लगता तो रिशि ‘कैं-कैं-कैं’ करके उसकी ओर दौड़ता। कुत्ता पूंछ दबा कर भाग जाता और कुछ दूर जाकर फिर ललचाई नजरों से देखता। जम कर शिकार खा रहे लोगों के लिए अक्सर कहा जाता था- चील काव जास ज्यै लागि रईं। यानी, मांस पर चील-कौवों जैसे टूट पड़े हैं।

कालेज जाने के लिए जब अपने गांव के पहाड़ से उतर कर नीचे गौला और छोटी नदी के किनारे से निकलता तो आसपास के रौखड़ यानी रेतीली खाली जमीन से टिट्यां (टिटहरी) की तेज आवाज आती- ‘टिट्टि…टिट्टि…टि टि टीइट!’

चाहे कहीं भी गया, कहीं भी रहा, अपने गांव की उन चिड़ियों की आवाज कभी नहीं भूल पाया। मेरे मन के धरती-आकाश में वे आज भी चहचहाती रहती हैं।

 

फोटो : साभार मेरा पहाड़ डॉट कॉम

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12 Thoughts to “घुघुती बासेंछी मेरा देश”

  1. आदरणीय मेवाड़ी जी का यह सुन्दर लेख पढ कर मन भावविभोर हो गया. पहाड़ में बिताये बचपन की यादें और सभी चिड़िया-पखेरु पुन: याद हो गये. मेरे बचपन का एक हिस्सा गुलेल लेकर चिड़ियों के पीछे भागने में भी गुजरा, गुलेल से चिड़िया को नुकसान पहुंचाने का मकसद कतई नही होता था, लेकिन उन्हें हाथ में लेकर नजदीक से महसूस करने का मन बहुत करता था.

    घिनौड़ियों (गौरैया)को जिन्दा पकड़ने का एक अनूठा तरीका भी बता देता हूँ. हम लोग सूप को खड़ा करके एक छोटे डण्डे से अटका देते थे. और उस डण्डे में एक धागा बांध कर दूर बैठ जाते थे. जैसे ही खड़े सूप के नीचे पड़े दानों को खाने चिड़िया आती डण्डा सरका कर सूप से उसे ढक देते. हालांकि बहुत कम मौकों पर ही चिड़िया को फंसा पाना सम्भव होता था.

    मेवाड़ी जी के लिखे ऐसे ही जानदार लेख पढने को मिलते रहेंगे ऐसा विश्वास है.

    1. mukkesh pandey

      bahut bahut dhanyawaad mewari ji,apne pahaad ki sanskriti se parichay karane k liye,,aapka pyayas wastaav me bahut mahaan hai,,,

  2. Hansa Datt Sharma

    Mewadi Ji – Very very thank you

  3. अभी-अभी पहाड़ से एक महीने बाद लौटा हूं, आपके इस लेख को पढ़कर फिर से मन पहाड़ पहुंच गया।

  4. Excellent article by Devenedra Ji.

    Ghughuti is one of the famous bird of Uttarkahand. I see a lot of Folk songs have been made ghughuti.

    Ghughuti bird ko naryee ka parteek mana gaya hai. ( in think so). if we go through the lyric of songs.

  5. Saroj Negi Kalsi

    Excellent article by shri Devenedra Ji. Aap ne garhwal ki yaad taja kar de hai, Hamare Uttrakhand ke logon ke pas he asi payari yado ko sabado me pironi ki kala aati hai.beautiful articles.

    Expect more such articles.

  6. seema Negi

    very nice article. Bachpan ka ahsaas gaon ki yadan sab kuch jaise is article me hi sim gaya ho itne se sabdo itna vistar. It’s really amazing. thanx

  7. dinesh singh negi

    the story of sash bahu is realy intrested because I heared that story from my ama at my childhood.

    thanks

  8. DEVENDRA SINGH NEGI

    thanks to mewari ji for the all story,

  9. Manmohan singh negi

    hhhmmmmm amazing feeling in the villages

  10. Nandan Syunary

    Mewadi ji ko Shat-Shat naman…………….dil ki khapire khapire ho gaye…………matlab dil bag-bag ho gaya……uper Hem Ji ne likha hai ki ghinorio ko soop se pakadne ka style, hamara bhi same tha……bahut – bahut dhanyawaad….

  11. subhash negi (garhwal)

    na baas ghughuti chaita ki khud lagin cha maa maita ki. . . . Ghughuti, hey ghughuti ghinduri hey hilaansi kakhi tu bhooli na jaiyi, mund bandnu mera byo ma dadgya tak lagai ki aiyi. . !

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